हॉस्टल से लेकर आश्रम तक

अक्सर लोग बच्चों मे ही सारी गलतियां निकालते हैं! लेकिन क्या आपने कभी सोचा है, कि ये बच्चे इन सब बातो की शिक्षा हां से पाते हैं ? आप अपने इर्द-गिर्द नजर डालें तो पाएंगे कि बच्चों को अच्छे से अच्छा पढ़ाई देने के एवज में आज हर मां बाप एक मोटी रकम खर्चने को तैयार है। सिर्फ इसलिए कि मेरा बच्चा शहर के सबसे बड़े स्कूल में पढ़े,साफ-सुथरे कपड़े पहने भारी-भरकम बस्ता उठाए, फर्राटेदार अंग्रेजी बोले और पास होते ही एक अच्छी सी नौकरी मिल जाए । आज शिक्षा का मकसद सिर्फ नौकरी से लगाया जाता है, क्या कभी स्कूलों में दी जाने वाली संस्कारों पर किसी ने सवाल उठाया या इस पर कभी ध्यान दिया ? नहीं ! जरा सोचिए एक बच्चा महज 5-6 साल की उम्र में अपने घर और परिवार से दूर हॉस्टल में सिर्फ इसलिए रख दिया जाता है कि उनका बच्चा औरों से अलग हो ! उसे एक बुद्धिमान और ज्ञानी इंसान बनाने के चक्कर में 12 साल तक उसे स्कूल की हॉस्टल में इंटर तक की पढ़ाई करने तक रख दिया जाता है।जहां वह बचपन से लेकर यौवन तक का सफर तय करता है। इस दौरान सिर्फ छुट्टियों में घर आ पाता है,उस पर भी उसकी पढा़ई का स्तर नीचे ना खिसक जाए इस चिंता से उसे उसके घर वाले ट्यूशन / कोचिंग लगा देते हैं! विश्वविद्यालय की पढ़ाई के लिए अच्छे से अच्छा महाविद्दयालय चुना जाता है।नतीजा यह होता है कि फिर वह अपने घर-परिवार से दूर अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए किसी एक छोटे से कमरे में खुद को पाता है। यह बचनपन का बहुमुल्य समय होता है जो लौटकर कभी नही आता।ऐसे समय में जब बच्चों में संस्कार डाले जाने चाहिए, ऐसे समय में बच्चा जिस परिवेश में जीता है,जिस चीज से रूबरू होता है उनके अंदर वही भावना घर बना लेती है। अगर कोई बच्चा कभी हॉस्टल में ना भी रहना चाहे, तो मां-बाप का एक ही जवाब होता है- "बेटा हमारे पास समय कहां है यहां कौन तुझे पढाएगा,कौन तुम्हारी देखभाल करेगा।" वहां हॉस्टल में अच्छे से पढ़ पाएगा,तुम्हारे दोस्त होगे,वगैरा-वगैरा। और जब वह बच्चा अपनी पढ़ाई पूरी कर लेता है,तो फिर जुगाड़ लगाया जाता है एक अच्छी सी नौकरी का और जब वह भी मिल जाता है तो मां-बाप चाहते हैं कि किसी तरह कमाने वाली बहू भी मिलजाए। अब बेटा और बहू दोनों कमाने वाले दोनों सुबह नौकरी पर चले जाते हैं देर रात तक घर लौटते हैं। अब इनके पास मां-बाप को देने के लिए समय नहीं है पर यह लोग वृद्धा आश्रम में दान के रुप में बहुत मोटी रकम दे सकते हैं।होता भी यही है यही बच्चा बड़ा होकर मां-बाप से कहता है हमारे पास समय कहां आप की देखभाल के लिए हम दिन भर बाहर रहते हैं और मां-बाप को अपने आलीशान कार में बैठाकर बृद्धा आश्रम छोड़ आता है। ये वही कार है जिसका सपना माता-पिता दिन-रात देखते हैं कि मेरे बेटे के पास ऐसा गाड़ी हो वैसा मकान हो। ऐसा नहीं है कि बच्चे अपने अभिभावकों को पूरी तरह भूल जाते हैं।हास्टल में रहकर इन्होंने अपनी ज्ञान को निचोड़ कर जिंदगी के प्रयोगशाला में अपने मां-बाप के लिए "मदर डे और फादर डे"का आविष्कार किया है। यह 2 दिन अपने अभिभावकों के लिए कुछ घंटे निकालते हैं और उन्हे बृद्धाआश्रम से बाइज्जत उसी आलीशान गाडी में बैठा कर घर लाते है।उस दिन को जश्न की तरह मनाकर शाम को ढेर सारे तोहफो के साथ फिर से उसी आश्रम में छोड़ आते है।ठिक उसी तरह जिस तरह बच्चे को छुट्टियों के बाद जरूरतों के सामान के साथ फिर से उसी हॉस्टल में ले जाकर छोड़ दिया जाता था। बीच-बीच में खर्च के तौर पर उन्हें कुछ पैसे भी दे आते हैं।जैसे बच्चे से मुलाकात करने के लिए हास्टल में जाने वाले अभिभावक करते है। लेकिन मुझे ताज्जुब तब होता है जब सारी दुनिया को सिर्फ बच्चो में ही गलती नजर आता है और उसपर सारे जमाने की उंगली उठती है। माना बच्चे ने अपने मां बाप को वृद्धा आश्रम में छोड़ आया ! मगर लोग यह भूल जाते हैं कि इतिहास अपने आप को दोहराता है,एक कहावत है "जो जैसा बोता है वो वैसा काटता है।तो जब वह बच्चा बचपन से यही देखता आया है, उसे इसी तरह की शिक्षा दी गई है ।तो इस जमाने का उस बच्चे को गलत ठहराना कहां तक उचित है ? यह हमारे संस्कार नहीं है यह हमारे द्वारा दी गई एक ऐसी शिक्षा पद्धति है जो एक ऐसी पीढ़ी को तैयार कर रही है जिसने अपनी जिंदगी में हॉस्टल और होटल के सिवा कुछ देखा ही नहीं परिवार की अहमियत को बाप की डांट और मां का दुलार,भाई-बहन का त्याग और प्यार को कभी महसूस ही नहीं किया। उस बच्चे से आप भावनात्मक संबंध बनाने की उम्मीद लगा बैठते हैं जिसके अंदर आपने कभी भावना डाली ही नहीं। इसमें दोषी किसे ठहराया जाए उस बच्चे को या फिर उसके शिक्षा पद्धति को या फिर उस मां-बाप को जो जीवन भर सिर्फ पैसे के पीछे भागता रहा ! अपने बच्चे तक को देख ना पाया। बच्चे की परवरिश में इनका सिर्फ इतना योगदान था कि समय पर उसकी फीस जमा कर दिया करते थे और बच्चों के हाथ में उसके खर्च के लिए कुछ पैसे दे दिया करते थे।यह बच्चे भी तो अपने अभिभावकों को ऐसा ही सुख दे रहे है। क्योंकि बचपन से इसने इस व्यवहार को ही जिम्मेदारी के तौर पर देखा और समझा है।तो फिर जमाने की उंगलियां सिर्फ बच्चों पर क्यों उठ रही है ? क्या आपने कभी मजदूरों के, किसानों के या किसी नौकरों के मां-बाप को वृद्धा आश्रम में पाया है। इन वृद्धाश्रम में धनाढ्य और व्यस्त रहने वाले लोगों के मां-बाप ही देखने को मिलते हैं।और ऐसे ही पैसे वाले इन अनाथ आश्रम को बनवाते हैं और चलाते हैं। बच्चों की नजर में यह उनके मां-बाप का एक हॉस्टल ही है जिसे वह बच्चा अपनी जिंदगी के सबसे अहम दिनो मे देखा जाना समझा और महसूस किया।