दम तोड़ता सरकारी सिस्टम-आशीष कुमार "उमराव पटेल"

दम तोड़ता सरकारी सिस्टम ------------------------------------- महामारी की आड़ में अति आवश्यक चीजों के दाम बढ़ना दुःखद है, देश में लाकडाउन शुरू होने से पहले ही बाजार में 60 रूपए के सेनेटाईजर की कीमत 300 हो गई और 20 रूपए वाला साधारण मास्क 50 रूपए में बेचा जाने लगा। आज भी इसकी कीमत लगभग यही है। जबकि सरकार द्वारा सेनेटाईजर और मास्क की जमाखोरी करने और अधिक दाम पर बेचे जाने पर रसुका लगाकर कठोर कार्यवाही की बात कही गई। आश्चर्य की बात है कि आज तक इस तरह का एक भी प्रकरण दर्ज नहीं किया जा सका। यही हमारा सिस्टम है। सब कुछ नियम—कायदों के खिलाफ होता रहता है और न्याय के धरातल पर किसी को सजा मिलना तो दूर, प्रकरण तक कायम नहीं होता। कदम—कदम पर अपराध होते हुए भी ​सिस्टम पूरी तरह निरापद है, सरकारी नियमों की धज्जियाँ सरेआम उड़ाई जा रही हैँ | सरकारी सिस्टम को दुरुस्त करने की जरुरत इसलिए भी है कि कोरोना काल में कई ऐसी घटनाएं सामने आई, जो हमारे सिस्टम पर सवाल उठाती है। यह सभी जानते है कि शहरों में मजदूरों का पेट भरने की क्षमता नहीं है, इसलिए वे गांव जाने लगे। जो सरकार पहले कहती थी ‘जो जहां है, वहीं रहे’ अब वह उन्हें गांव भेजने का श्रेय लूटने में लगी है, गरीब इंसान का रोड पर पैदल निकलना हमारे सिस्टम की सच्चाई बयां करता है। सब कुछ रिकॉर्ड पर होता है, हमारा सिस्टम् कागज पर बहुत ही सुनहरा दिखाई देता है। सरकारी योजनाओं और राहत की घोषणा सुनने में जरूर सुकुन देती है, लेकिन जमीनी स्तर पर उनकी हकीकत तकलीफ पैदा करती है। किसी भी महामारी के समय जनता का सामना जमीनी स्तर के सरकारी तंत्र से पड़ता है। ​इतिहास में कोरोना के रूप में पहली बार ऐसी महामारी सामने आई, जिसने लोगों को लम्बे समय के लिए घरों में नजरबंद कर दिया। इस दौरान कई ऐसे उदाहरण सामने आए, जो भयभीत करते हैं। इन्दौर में एक कोरोना संदिग्ध को पाजीटिव मरीजो के साथ रखा गया, एक कोरोना मरीज के बार—बार फोन करने सुनवाई न होने पर उसे मोटरसाईकिल से अस्पताल जाना पड़ा, उत्तरप्रदेश में गांव लौटते मजदूरों पर कीटनाशक का छिड़काव किया गया, इन्दौर के ही एक अस्पताल द्वारा कोरोना मरीज का इलाज करने से इंकार करने पर उसे दर—दर भटकना पड़ा और इस इंमजेंसी के हालात में भी प्रशासन द्वारा अस्पताल को जवाब देने के लिए तीन दिनों का लम्बा समय दिया गया। लाकडाउन के दौरान बस्तियों के गरीब लोग राशन के अभाव में भूखे मरते रहे और प्रशासन राशन वितरण के आंकड़े बताता रहा। लोग बताते हैं कि राहत के लिए शुरू किए गए सरकारी काल सेंटर पर फोन लगते ही नहीं है, और यदि फोन लग भी जाए तो उनकी बात को ठीक से सुना ही नहीं जाता। हमारी प्रशासनिक व्यवस्था की मजबूती का अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि सोशल मीडिया की सक्रियता के बावजूद कई सूचनाएं लोगों और संबंधित प्राधिकारी तक नहीं पहुंच पाती है। इस दशा में प्रशासन पर सवाल उठाने का जोखिम कोई नहीं लेना चाहता है। लेकिन उस इंसान के लिए यह बहुत ही भयावह है, जिसे इसी ​सिस्टम में एक ऐसे मरीज के रूप में रहना है, जहां कोई मिलने या ढांढस बंधाने वाला नहीं है। वहां उसकी देखरेख की जिम्मेदारी उसी सिस्टम पर है, जिसका वह पहले से शिकार होता आया है। ऐसे समय में हमें उन पुलिस, डाक्टर्स, नर्से एवं स्वास्थ्य व सफाई कार्यकर्ता को सलामी देनी चाहिए, जो ​इस सिस्टम रहकर उसे चुनौती देते हुए मरीजों की सेवा में लगे हैं, और बिना रुके, बिना डरे अपना काम कर रहे हैँ। जमीनी स्तर पर सरकारी घोषणाओँ पर अमल ना होना सिस्टम पर सवाल खड़े करता है, जमीनी स्तर पर कार्यरत तंत्र को जानने के लिए हमें पूरे परिदृश्य को समझना होगा। 200 वर्षों की गुलामी के बाद स्वतंत्र हुए देश में उसके कुछ अवशेष बाकी होना स्वाभाविक है, ​लेकिन हमने उन अवशेषों को दूर करने की कोशिश नहीं की। स्पष्ट है कि देश में जमीनी स्तर का सरकारी तंत्र अंग्रेजों का बनाया हुआ है और अंग्रेजों ने उसे जन सेवा के लिए नहीं, बल्कि जनता पर अत्याचार करते हुए अंग्रेजी सरकार के हितों की रक्षा के लिए बनाया था। आज़ादी के बाद हमने उसकी भूमिका में जनसेवा को जरूर ​शामिल कर लिया, लेकिन उसे जनता के प्रति संवेदनशील और उत्तरदायी नहीं बनाया। यही कारण है कि एक गरीब व्यक्ति को सरकारी दफ्तर में अपने वैधानिक और उचित कामों के लिए भी कई चक्कर लगाने पड़ते हैं। हमें यह भी सोचना होगा कि सरकार खुद जमीन पर उतरकर काम नहीं करती, ​बल्कि सरकार के काम इसी तंत्र द्वारा ही किए जाते हैं। सरकार बड़ी—बड़ी घोषणाएं तो करती है और उसके लिए धनराशि भी आवंटित करती है, लेकिन विडम्बना की बात यह है कि अब तक किसी भी सरकार ने जमीनी तंत्र के संवेदीकरण, निगरानी और उत्तरदायित्व के लिए कोई कार्य नहीं किया। महामारी की स्थि​ति में जब लोग पूरी तरह असहाय हो जाते हैं और उनकी मदद करने वाला कोई नहीं होता है, तब लोग महामारी के बजाय इस सिस्टम से ज्यादा डरते हैं, यही हमारे देश की सच्चाई है। इसलिए सरकार को ऐसे सिस्टम से निपटने के उपाय सोचने होंगे | ~*आशीष Kr. उमराव "पटेल", कैरियर & एकेडेमिक मेंटोर, स्पीकर, मोटीवेटर, निदेशक- गुरु द्रोणाचार्य (IIT-JEE, NEET & NDA इंस्टिट्यूट), फ़ोन & व्हाट्सप्प-8650030001, like, follow / subscribe me on-facebook, instagram, twitter, linkedin & youtube.*