शीर्षक-"बन्धु! मैं 'मज़दूर' हूं।"-उदय उमराव

शीर्षक-"बन्धु! मैं 'मज़दूर' हूं।" --------------------------------------- श्रमजीवी पिपीलिका हूं, श्रृष्टि का मैं नूर हूं। बन्धु! मैं। 'मज़दूर' हूं। परजीवियों की जीविका की, मैं ही तो आश हूं। उद्यमजनों की जिजीविषा की, मैं ही तो प्यास हूं। हर प्यास को निज श्रमकणों से, बुझाने को मजबूर हूं।। बन्धु! मैं 'मजदूर' हूं। याद आता हूं सभी को, बस, इक माह-मई में। जिकर कभी मेरा हुआ ना, 'साखी','सबद','सतसई' में। जो श्रम सरगम राग छेड़े, वह साज साधन संतूर हूं।। बन्धु! मैं 'मजदूर' हूं। कितना मिलेगा, मिला कितना, हैं, न कोई शिकवे गिले। है, बन्धु! केवल कष्ट इतना, भद्र जन जबभी मिले- -फासले रखकर मिले। फासलों के फलसफे का, मैं श्रमजनित दस्तूर हूं।। बन्धु! मैं 'मजदूर' हूं। अब तो मेरी आह! सुन लो, बन्धु! कोई पनाह चुन लो। डगर हमें चलने न देती, पुकार, हे! शहंशाह सुन लो। जतन कर दो मिलन का कुछ, स्व -जनों से दूर हूं।। बन्धु! मैं 'मजदूर' हूं। ---------------------------------------- - --उदय उमराव